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कविता

क्षीरसागर आँख में है

कुमार रवींद्र


क्षीरसागर
आँख में है
उसे खोजो नहीं बाहर।

वहीं शैय्या नाग की है
प्रभु उसी पर शयन करते
पाँव से उनके अलौकिक
नेह-झरने, बंधु, झरते
और मइया लक्ष्मी का
वास भी तो वहीं भीतर।

सुरज देवा भी
वहीं से ताप लेते-जोत लेते
उसी मीठे सिंधु में
हम देह की हैं नाव खेते
हृदय जिनका जाप करता
मिले हमको वहीं आखर।

रूपसी लहरें उमगतीं
बिरछ उसमें ही नहाते
पंछियों के कुल
सबेरे हैं उसी के विरुद गाते
बंधु, सारे
देवताओं का
वही तो है दुआघर।
 


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